बीते कुछ महीनों, सालों में अक्सर ट्रेन में गा-बजाकर पैसा मांगने वालो को देखकर दिल में उठी कुलबुलाहट को शांत करने के लिए उनसे कुछ बेतरतीब बातें की थीं. और जब से उनकी जुबानी, जो कुछ जाना, वो किसी स्थायी और अंतरे की तरह लगातार ज़ेहन में बजता रहा. उनकी लय, ताल और तान में जो सुर शामिल थे, वे 'सा' से 'सा' तक के सात सुरों के अलावा भी थे, जो डायरी की शक्ल में मैंने लिख छोड़े थे, उनसे की गई बेतरतीब बातों की ही तरह बिखरे हुए. थोड़ी कोशिश की थी तरतीब में सजाने की, ताकि कोई धुन बन सके, इसी का नतीजा है यह, जो 'वाह गान में छुपे आह सुरों' के रूप में सामने है. कामयाब कितना हुआ हूँ, पता नहीं....
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