अखबारी कतरन की झलक |
श्रमिक, यानी जिनका जीवन मेहनत की धुरी पर चलता है। जिनकी सबसे बड़ी पूंजी होती है उनकी ताकत, जिसके बूते वे दुरूह परिस्थितियों में भी अपने जीवन की गाड़ी को खींचने का हौसला रखते हैं। पर यह सुनना शायद थोड़ा अटपटा लगे कि श्रमिकों का एक तबका ऐसा भी है, जो तब तक मेहनत नहीं करता, जब तक उसे रोटी के लाले न पड़ जाएं। कुछ ऐसा ही कहा जाता है बिहार के बांका जिले में रहने वाले समुदाय ‘लैया’ के बारे में, जिसे ‘कादर’ भी कहा जाता है।
आबाद बस्ती से दूर कहीं बाहर आठ-दस झोंपड़ियों का एक समूह है। समूह के भीतर जाते ही खाट पर बैठे या पसरे पड़े कुछ पुरुष दिखाई देते हैं। काली रंगत, शरीर इतना दुबला कि एक-एक हड्डी गिनी जा सके, कई नसें तक गिनी जा सकती हैं। आधे से ज्यादा लोगों के सिर घुटे हुए। कपड़ों के नाम पर बस एक तहमद और ज्यादा से ज्यादा एक बनियान। आस-पास मिट्टी में खेलते बच्चे, जिनके फूले हुए पेट उनके कुपोषित होने की चुगली करते हैं। यह एक आम दृश्य है किसी ‘कादर बस्ती’ का। घर में चंद बर्तनों के अलावा कुछ भी नहीं होता इस समुदाय के पास और जीवन-यापन का एक मात्र जरिया है दिहाड़ी मजदूरी। मजदूरी का भी इस समुदाय के लोगों का अपना अलग अंदाज है। यह या तो खेतीबाड़ी का काम करेंगे या फिर लोडिंग-अनलोडिंग की तरह का काम, जिसमें बस चीजों को उठाकर एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना हो। इन लोगों के लिए काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था सेवा भारती के प्रमुख सुधीर कुमार कहते हैं, ‘असल में यह लोग कुछ सीखना ही नहीं चाहते। ऐसा लगता है, जैसे इनके अंदर से सीखने की ललक खत्म हो गई है। हो सकता है कि यह वर्षों से मिल रही उपेक्षा का परिणाम हो। दूसरी चीज यह भी रही कि इनसे या तो खेती का ही काम करवाया गया, या फिर बेगारी करवाई गई। यह लोग पीढ़ियों से यही काम करते आ रहे हैं, शिक्षा-दीक्षा से इनका कोई नाता नहीं रहा, जिसका परिणाम है कि एक तरह से पूरा समुदाय ही प्रगति से दूर हो गया। अलबत्ता अब थोड़ा फर्क पैदा हुआ है, लेकिन सिर्फ इतना कि अब ये रिक्शा चलाने लगे हैं।’
संसाधनविहीन और गरीब-पिछड़ों की प्रगति के लिए केंद्र और राज्य सरकार की कई योजनाएं हैं। क्या इन तक वह योजनाएं नहीं पहुंचती? इसका जवाब भी बड़ा दिलचस्प है, जिसे समझने के लिए कुछ मूलभूत बातों की जानकारी होना जरूरी है। पहली तो यही कि 2001 की जनगणना से पहले ‘कादर’ या ‘लैया’ जैसी कोई जाति या समुदाय सरकारी कागजों में था ही नहीं। आदिवासियों पर कार्य करने वाले बिहार के कई लोगों का मानना है कि यह मूलत: एक आदिवासी समुदाय है, लेकिन सरकार ने इसे अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में रखा है। यानी इसे जिन सरकारी योजनाओं का लाभ असल में मिलना चाहिए था, उनका दायरा सिमट गया है। इस समुदाय की कुल आबादी तकरीबन 6000 है और यह पूरे बिहार में सिर्फ बांका जिले में ही है, जिसकी सबसे ज्यादा तादाद बौंसी से लेकर झारखंड के जसीडीह तक के बीच बसी है। जसीडीह की एक स्वयंसेवी संस्था लोक विकास संस्थान के प्रमुख सुभाषचंद्र दुबे बताते हैं, ‘चूंकि यह समुदाय पढ़ाई-लिखाई लिखाई से दूर ही रहा है, इसलिए इसे योजनाओं की जानकारी होना एक बेमानी सवाल है। और यही जानकारी का अभाव इसकी प्रगति के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है। आज के समय में जब अपना अधिकार मांगने पर भी मुश्किल से ही मिलता हो, वहां इन तक भी केवल वही योजनाएं पहुंच पाती हैं, जिन्हें पूरा किए बिना सरकारी अमले का काम नहीं चलता।’ इस समुदाय की आजीविका कैसे चलती है? इस बारे में जानना भी कम दिलचस्पी से भरा नहीं है। इनके मामले में ‘प्यास लगने पर कुआं खोदने’ वाली कहावत शब्दश: सच होती दिखाई पड़ती है। आंखों देखी ने किस्सों को हकीकत का जामा पहनाया, जिसका लब्बोलुआब यह था कि एक जगह काम करके जब इनके पास कुछ पैसे जमा हो जाते हैं, तो ये तब तक कोई और काम नहीं करते, जब तक कि वह पैसे खत्म न हो जाएं और आटा-दलिया खरीदने के लिए पैसों की जरूरत न आ पड़े। हालांकि जहां इनकी बड़ी बस्तियां हैं, वहां कुछ ‘चतुर-सुजान’ भी हैं, जो इनके बीच के होते हुए भी इन्हीं के लिए बड़ी मछली बन गए हैं। पढ़े-लिखे भले ही न हों, पर क्षेत्रीय राजनीति के दांव-पेंच सीख चुके हैं। आगे बढ़ते वक्त में इस समुदाय के बीच दिखने वाला यह एक बदलाव है। जो बस्तियां शहर या कस्बे के नजदीक हैं, उनमें एक बदलाव यह भी है कि इन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया है। पर यह प्रतिशत कुल 6000 की आबादी में न के बराबर है। 20 कादर बस्तियों में स्कूल जाने वाले कुल आठ-दस बच्चे ही मिले। कुछ लोगों ने बंटाई पर जमीन लेकर खेतीबाड़ी करने की शुरुआत के साथ जीवन स्तर को बेहतर बनाने का सपना भी देखा है।
इन बदलावों के बावजूद जो तस्वीर सामने आती है, वह यह है कि यह एक निर्लिप्त समुदाय है। सत्तू और लाई के भरोसे दिन काट देने वाले इन लोगों को बेहतर कपड़े, अच्छे खाने और पढ़ा-लिखा कर बच्चों को कुछ बनाने की कोई लालसा नहीं है। कल की इन्हें कोई फिक्र नहीं है और आज से भी कोई खास सरोकार नजर नहीं आता। इनकी यह निर्लिप्तता सरकारी खेमों में तक पसर गई है। तभी तो जिला कार्यालय में यह जानकारी तक उपलब्ध नहीं है कि जिले में कहां-कहां इस समुदाय की बसाहट है। इसके आगे बाकी बातें तो फिर बेमानी हो ही जाती हैं। कुल मिलाकर जो दिखता है, वह है एक उदासीन समुदाय के प्रति उदासीन सरकारी रवैया।
(01 अप्रैल 2012 को दैनिक जनवाणी, मेरठ में प्रकाशित)
आँखें खोलने में सक्षम आलेख
जवाब देंहटाएंPublished on the very interesting day.... perhaps some people would think that its a new way of making people fool... but really touching article; even I heard the name of the community first time.
जवाब देंहटाएंAchchha likha hai Rajneesh. Isme agar yah aur bata pate ki unki halat us ilake ke hee anya gareebon se kin maynon me bhinn hai to aur achchha hota, malan kya unke saath chhuachhoot jaisa samajik atyachar vagairah hota hai jaisa SCs ke saath hota hai; aur yah bhi ki us samuday ki mahilaon ki kya sthiti hai. Jo NGO unke beech kaam kar rahe hain unhone kitna kam kar paya hai, kitne samay se we kaam kar rahe hain, vagairah. Aur akhiri baat yeh ki ye sewa bharti kya cheez hai bhai? Kahin yeh RSS wali Sewa Bharti to nahi? Zara pata karo miyan?
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