गुरुवार, 16 जुलाई 2009

आख़िर

आख़िर क्यों न कहें उन्हें धन्य
आख़िर थे ही वे इस काबिल कि
बन सके हमारे प्रतिनिधि

आख़िर कौन मिला गरीबों से
एकाध जगह की बात नहीं
गाँव - गाँव
जगह - जगह
पूरे राज्य में जाकर
आख़िर कौन मिला हम गरीबों से

जिनके डूब गए थे बाढ़ में
और जो थे गरीब बेघर
घर देने की उन्हें
बात भी तो कही उन्होंने
आख़िर उनका क्या कुसूर
अगर बाबू घूस माँगता है तो

कोई कसर तो नहीं छोड़ी उन्होंने
आख़िर किया ही है विकास
बरसात में निकलना भी दूभर होता था
उन्होंने गाँव - गाँव तक
आख़िर पहुँचा तो दी हैं सड़कें
सबूत है इस बात का
उनकी विकास-यात्रा

अब बन गईं हैं सड़कें
तो आसानी होगी
जाकर गाँव से शहर
मजदूरी तलाशने में

फूस से छप्पर तो बन जाता है
आख़िर पेट तो नहीं भरता।

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

जुदा और...

उनके कायदे रवायतें-ओ-अदा और
अपना शऊर-ऐ-ज़िन्दगी उनसे जुदा और

वो लीक पे चलते हैं बुजुर्गों की बनाई
अपने दिल की आवोहवा रंग-ओ-सदा और

इक तरफ़ इस जिस्म की यायावरी बेइन्तहा
मन का ठिकाना अलहदा तन के सिवा और

अपने घर से मुब्तिला हम घर से लेकिन बेखबर
यानि घर के दरमियाँ घर से जुदा और

बर्क़ की वो बानगी खो गई जाने कहाँ
अब्र की तरह से नम दिल दम से जुदा और

बैठकर नासेह संग लिखना मुमकिन न रहा
उनकी अपनी इक फिजा साहिल का समां और।

मंगलवार, 2 जून 2009

हँसी


बहुत अरसा पहले लिखी थी ये कविता, आज अचानक से याद आ गई। अभी भी लगता है कि अधूरी है, पर जो भी है प्रस्तुत है।

हँसना यूँ तो बहुत अच्छा होता है
पर कभी-कभी मुझे चुभती है हँसी
बेवजह, छोटी-छोटी बात पर
अगर ना हँसें लोग
तो शायद जीवन की आपाधापी
लोगों को मौका भी ना दे हँसने का

जानता हूँ फिर भी
कभी-कभी गुस्से से भर देती है हँसी
जब कोई गिरता है केले के छिलके पर फिसलकर
तो लोग हँसते हैं
मानो वो गिरा हो आपको हँसाने के लिए ही
जानबूझकर किसी सर्कस के जोकर की तरह

लोग हँसते हैं
नहीं समझते मन:स्थिति
गिरने के बाद अपने ही भीतर
सिमट जाने को आतुर उस व्यक्ति की

मुझे चुभती है ये हँसी और
मैं देखता हूँ उस केले के छिलके की ओर
जिसमें लगा बाकी का गूदा भी
निकाल बाहर किया फिसलकर लोगों को हँसाने वाले पैर ने.

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

चुनावी मंगल गान...

चुनाव की बेला है, हर जगह प्रत्याशी मतदाताओं को लुभाने में लगे हैं, और "बेचारा आम आदमी" किसी विरहिणी की तरह सशंकित है। चुनावी सजन के लिए मन की आशंकाओं को व्यक्त करता एक मंगल गान -


मंगल गाओ री सजन घर आए

सजन घर आए, बलम घर आए
कर मीठी बतियाँ मोहे ललचाए
मोरा मन भरमाए
सखी री सजन घर आए

पैयाँ पड़े मोरे करे मोसे विनती
कहे तोरा साथ न छोडूं मैं अबकी
कपटी कहीं न फिर लूट ले जाए
मोरा मन घबराए
सखी री सजन घर आए

सतरंगी सपनों की लाए चुनरिया
महल छोड़ रहे मोरी छपरिया
बड़ी प्रीत से मोरी पूछे खबरिया
फिर न कहीं बिसराए
सखी री सजन घर आए.

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

रेख्ता के उस्ताद...

साथियों,
आज से एक और नए ब्लॉग की शुरुआत की है, उम्मीद है कि आपको भी पसंद आएगा।
जिन्हें अक्सर बार-बार पढ़ता हूँ उन रचनाओं को आपसे साझा करने का प्रयास है। यह ब्लॉग उन रचनाकारों को समर्पित है जो मुझे हर समय प्रासंगिक लगे हैं और जिन्हें पढ़ते हुए मैंने ख़ुद को कुरेदना सीखा है।

इसी पेज पर आपको इस नए ब्लॉग का लिंक भी उपलब्ध है.....
"रेख्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो..."

उम्मीद है आपको यह प्रयास पसंद आएगा।

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

यार चाँद...

कितने बदल गए हैं हालात यार चाँद
करते भी नहीं हम अब बात यार चाँद

भटके थे कितनी रातें सड़कों पे साथ-साथ
क्या फिर कभी मिलेगी वो रात यार चाँद

बसों का सफर, दफ़्तर थका देता है मुझे तो
तूने भी कोई नौकरी क्या कर ली यार चाँद

मेरे जैसे कई साथी तेरे तो और भी थे
क्या उनसे अब भी होती है बात यार चाँद

खिड़की के पार आकर मिल जा कभी मुझसे
आधी रात तक तो मैं भी जगता हूँ यार चाँद

कैसी कटीं रातें तेरी पिछले इन दिनों की
मैं बताऊँ तुझको दिन की बात यार चाँद

मैंने सुनाई थी जो एक-एक नज़्म तुझको
कुछ याद हों तो मुझको सुना जा यार चाँद

दिन का पता मुझे है रातें तेरी नज़र में
बता तो दिल्ली कैसी लगती है यार चाँद

रफ़्तार में शहर की कहीं ख़ुद को खो न बैठूं
मेरे साथ बैठ कुछ पल कर बात यार चाँद ।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

छिपकली

कल कपड़े धोते समय
तल्लीन था जब
अपनी कमीज़ को बनाने में
इतना सफ़ेद
कि देखते ही लोग कहें
भला इससे ज़्यादा सफेदी और कहाँ
अचानक
स्नानगृह की छत से चिपकी छिपकली
आ गिरी भरभरा कर
मेरी पीठ पर

अनायास ही आ गए याद
माँ के शब्द
अपशगुन होता है छू जाना
छिपकली का हमारे शरीर से

सोचता रहा था उस वक्त भी
आख़िर ऐसा क्या होता है
छिपकली की देह में
जिसका छू जाना
होता है अपशगुन
और क्या होता होगा उनका
जो मानते हैं उसे भी
एक लज़ीज़ व्यंजन

पता नही कौन सा हिस्सा
बताया था माँ ने हमारे शरीर का
बायाँ या दायाँ
जिस पर छू जाना छिपकली का
होता है अपशगुन

पर कुछ नहीं होता
याद होने पर भी
छिपकली गिरी थी
पीठ के ऐन बीचों-बीच
ठीक मेरी रीढ़ के ऊपर।