मंगलवार, 4 अगस्त 2009

लिखे बिरहमन पीली चिट्ठी...

एक अरसा पहले लिखी ग़ज़ल -

लफ्जे मोहब्बत अहले दुनिया हमने खूब उछाला है
क्या समझाएं उनको जिनका सब कुछ देखा भाला है

लिखे बिरहमन पीली चिट्ठी दो लोगों की डोर बंधी
चाँद पे पहुंचे मंगल देखा फिर भी गहरा जाला है

शिकवे गिले तो ज़ेरे लब हैं क्या कहना खामोश रहो
जिनके वादों पर है जीना उनका दिल तो काला है

दश्ते सितम में शेर तुम्हारे क्योंकर उन तक पहुंचेंगे
सबकी अपनी चारदीवारी सबका एक रिसाला है

काम तो लो कुछ धीरज से वो हैं मसरूफ तुम्हारे लिए
भूखे बच्चों की खातिर फिर कहीं पे छलका प्याला है

कड़ी धूप है चलेंगे कैसे, सोच के बस घर ही में रहे
कमरे में ही चल-चलकर अब पका पाँव का छाला है

साहिल तुम हो फक्कड़ ठहरे क्या जानो तुम इनका राज़
रुतबा, शोहरत, पहचानों का कैसा गड़बड़-झाला है

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