शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

मंटो: थप्पड़ मारने वाला कहानीकार

 -रजनीश ‘साहिल’
‘सब कुछ अच्छा भला चल रहा था। दिन-रात, चौबीस घंटे कभी विज्ञापन में, तो कभी धारावाहिकों-फ़िल्मों में दिखती साड़ी से लेकर बिकनी तक में मौजूद देहयष्टि की कल्पना करते दिमाग को जो कुछ पढ़ने में मज़ा आ सकता था, उसके लिहाज से सब अच्छा भला ही चल रहा था। फिर अचानक लगा कि किसी ने अपनी पूरी ताकत से एक झन्नाटेदार थप्पड़ मार दिया हो। एक ऐसा थप्पड़, जो रंगीन कल्पनाओं की दुनिया से खींचकर सीधे उस हकीकत से रू-ब-रू कराता है, जो तकलीफ़देह है, घिनौनी है, इंसान के जानवर होने की तसदीक़ करती है और जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। और भी कुछ ऐसा महसूस होता है यार, जिसे मैं कह नहीं पा रहा हूं।’
     जब मेरे मित्र ने मुझसे यह कहा था, तब मैं बखूबी समझ रहा था कि वह क्या महसूस कर रहा है, क्या कहना चाहता है, जिसके लिए सही शब्द नहीं ढूंढ पा रहा है। वह जो कुछ महसूस कर रहा था, तकरीबन वैसा ही कुछ मैंने भी महसूस किया था, जब उस बदनाम कहानीकार की कहानी सही मायनों में पहली बार पढ़ी थी। फिर जितनी कहानियां पढ़ता गया, हर बार एक थप्पड़ का इजाफ़ा होता गया। मुझे यकीन है कि यह हर उस शख्स के साथ हुआ होगा, जिसने सआदत हसन मंटो की कहानियां पढ़ी हैं, ढंग से पढ़ी हैं।
     एक नजर में मंटो को थप्पड़ मारने वाला कहानीकार कहा जा सकता है, मगर हर कहानी में इस थप्पड़ की किस्म जुदा है। कभी वह झन्नाटेदार थप्पड़ मारते हैं, तो कभी हल्की सी चपत लगाते हैं। उनकी तकरीबन कहानियों में यह भाव है। बावजूद इसके उनकी बहुतेरी कहानियां हैं, जहां इंसान के दुर्भावनापूर्ण चेहरे के अलावा संवेदनाओं से लबरेज़ चेहरे भी दिखाई देते हैं। ‘काली सलवार’ जैसी कहानियां इसका उदाहरण हैं, जहां एक-दूसरे से नितांत दो अजनबी एक-दूसरे की अभिलाषाओं के बारे में सोचते हैं। 
     बहरहाल, मंटो की कहानियों के पात्रों के बारे में अगर बात करें, तो वे आज भी वैसे ही हैं, जैसे मंटो के समय में थे। यानी मंटो की कहानियों के पात्र सर्वकालिक हैं। कल भी वैसे ही थे, आज भी वैसे ही हैं। अपनी एक कहानी ‘सरकंडों के पीछे’ में मंटो खुद शुरुआत में ही लिखते हैं, ‘देखिए मैं उस स्त्री का नाम बताना भूल गया। बात असल में यह है कि उसका नाम कोई मायने नहीं रखता। उसका नाम आप कुछ भी समझ जाइए। सकीना, महताब, गुलशन या कोई और। आख़िर नाम में क्या रखा है।’ सच है, नाम में कुछ नहीं रखा। मंटो की कहानियों के पात्र हमारे चारों ओर हैं। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि मंटो ने उनके बारे में लिखा और हम उनके बारे में सोचने से भी क़तराने लगे हैं। ठीक ऐसे ही जब मंटो लिखते हैं, ‘कौन-सा शहर था, जहां तक मैं जानता हूं आपको मालूम करने और मुझे बताने की कोई जरूरत नहीं।’ तो यकीन जानिए कि जिस जगह का जिक्र मंटो कर रहे हैं, वह पेशावर भी हो सकती है, कोलकाता भी, मुंबई भी और उजाड़ में बसा कोई गांव भी। वह आज की पूरी दुनिया का कोई भी हिस्सा हो सकता है, जहां हर हाल में रोटी का जुगाड़ आज भी सबसे अहम सवाल है।
      मंटो के बारे में अमूमन यही कहा जाता है कि विभाजन, उसके दौरान और उसके बाद की विभीषिका पर उनसे ज्यादा दहलाने वाली कहानियां शायद किसी ने नहीं लिखीं। यह सच भी है, फिर भी मुझे लगता है कि यह मंटो जिस वक्त में कहानियां लिख रहे थे, उस वक्त के हालात से जोड़कर उन्हें देखने का नतीजा है। वरना उन्होंने ऐसी कहानियां भी लिखी हैं जो किसी खास वक्त की हो ही नहीं सकतीं। ठीक है कि आज हालात में काफ़ी तब्दीली आ चुकी है लेकिन ‘हीरामंडी’ के सलाहू और दूदा पहलवान हों, चाहे ‘लायसेंस’ की इनायत उर्फ नीति का अंजाम, आज भी चीजें वैसी ही हैं। आज जिस ढंग से तमाम तरीकों की आड़ में हिंदुस्तान, पाकिस्तान, ब्रिटेन, अमेरिका, अफगानिस्तान और अरब देशों में ऑनर किलिंग के मामले सामने आ रहे हैं, ऐसे में मंटो की कहानी ‘इश्क पर ज़ोर नहीं’ कुछ अलग ढंग की कहानी लगती है। शरुआत में ही मंटो लिखते हैं, ‘लोगों को यह शिकायत है कि मैं रोमांटिक कहानियां नहीं लिखता। मैं अब इश्क़िया कहानी लिख रहा हूं, ताकि लोगों की यह शिकायत भी किसी हद तक दूर हो जाए।’ इसके बाद मंटो बाकायदा एक इश्क़िया कहानी लिखते हैं, जहां नायक जमील पूरी तरह इश्क़ियाया हुआ दिखाई देता है। मगर यह कोई फिल्मी कहानी नहीं है, जिसका अंत सुखद हो। जमील पूरी कहानी के दौरान इश्क़ तलाशता रह जाता है और अंत में पता चलता है कि मूर्खता की हद तक सादा और सीधी अजरा ने सिर्फ इसलिए ख़ुदकुशी कर ली कि उसे जमील से बेइंतहा मोहब्बत थी और जमील की शादी कहीं और तय हो चुकी थी, जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सकी। जहां तक समझ आता है मंटो ने अजरा की ख़ुदकुशी का ताना सिर्फ इसलिए नहीं बुना कि वह इश्क़ में हार जाने से टूट गई थी। हारना कैसा, जबकि उसने इज़हार-ए-मोहब्बत कभी किया ही नहीं। असल में यह ख़ुदकुशी उन ख़्वाबों की है, जो एक नौजवान स्त्री देखती है, जिनका इज़हार करने तक की उसे इजाज़त नहीं है। आज भी ऑनर किलिंग के नाम पर दुनियाभर के देशों में जो सबसे ज़्यादा आसान शिकार है, वह महिलाएं ही हैं। वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के कारण मारी जा रही हैं, और अजरा बिना व्यक्त किए मर गई। फ़र्क क्या है? 
     देखा जाए तो मंटो उर्दू के वैसे ही कहानीकार हैं, जैसे हिंदी के प्रेमचंद या बांग्ला के शरतचंद्र। या शायद उससे भी कहीं ज़्यादा, क्योंकि इंसानियत को जिस बुरी तरह से झिंझोड़ा जा सकता है, उसकी पराकाष्ठा सिर्फ मंटो के यहां मिलती है। मंटो की कहानियां किसी भी दौर में क़ैद नहीं की जा सकतीं। वह हर दौर में उसी के मुताबिक झंझोड़ती हैं, दिमाग की चूलें हिलाती हैं और सवाल खड़े करती हैं। ‘नंगी आवाज़े’, ‘तमाशा’, ‘दो क़ौमें’, ‘सड़क के किनारे’, ‘नारा’, ‘डरपोक’, ‘नया कानून’ जैसी उनकी तमाम कहानियों का ज़िक्र इस सिलसिले में किया जा सकता है। भले ही यह कहानियां बहुत अलग-अलग तरीके से अलग-अलग चीजों को बयां करती हैं, लेकिन अंतत: हमारे आसपास और बीच की स्थितियों को लेकर सवाल खड़े करती हैं। इसके बरअक्स ‘टोबा टेकसिंह’, ‘काली सलवार’, ‘मंजूर’, ‘हीरामंडी’ जैसी कहानियां इंसान की अतिशय संवेदनशीलता को भी नुमायां करती हैं, जहां कहानी के दो पात्र एक-दूसरे से किसी मुलाहजे में नहीं बंधे हैं, लेकिन एक की तक़लीफ से दूसरा द्रवित होता है। 
     कहानी कहने की विधाओं के बारे में अगर बात की जाए तो मुख्यत: दो किस्म की कहानियां सामने आती हैं। एक वह जो दृश्य वर्णन के साथ-साथ उसके मायने भी साथ ही व्यक्त करती जाती हैं, दूसरी वह जो महज़ एक कथ्य के माध्यम से पूरा दृश्य और उसका विस्तृत आख्यान वर्णित करती हैं। मंटो की कहानियां दूसरी किस्म की हैं, लेकिन फिर भी अलग हैं। वह कहानी लिखते नहीं, सुनाते हैं। अक्सर कहानियों में वह किस्सागो नज़र आते हैं। चाहे वह स्त्री देह का वर्णन हो या अस्पताल में पड़े मरीज़ों के बीच की बातचीत, वह अपनी हर पंक्ति के साथ एक दृश्य दिखाते हैं। दृश्य-दर-दृश्य चलती एक जीवंत कथा कहते हैं और अंत की तीन या चार पंक्तियों में पूरी कहानी की असलियत बयां करते हैं। कुछ इस तरह कि वह आखिरी पंक्तियां ही असली कहानी हो जाती हैं, बाकी पूरा वृत्तांत तो महज़ भूमिका भर लगता है। बकौल वाल्टर बेंजामिन कहानी कहने की आधी कला इसी में है कि सुनाते समय उसे तमाम स्पष्टीकरणों से मुक्त रखा जाए। इस नज़रिए से दुनियाभर के किस्सागो कहानी कहने की जिस शैली को सबसे बेहतर मानते रहे हैं, वही शैली मंटो की कहानियों में मौजूद है, यानी जहां अंत ही सबकुछ है। मंटो ऐसा ही करते हैं, वह कहानी के क्लाइमैक्स के साथ ऐसा कुछ छोड़ जाते हैं, जिस पर बात करनी अभी बाकी है। जिस पर सामाजिक नज़रिये से कदम उठाऐ जाने की अभी भी ज़रूरत बाकी है। अपने शब्दों में कहूं तो यह कि वह हर कहानी के अंत के साथ हमारे मुंह पर एक ऐसा तमाचा जड़ते हैं, जो हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वाकई हम इसी लायक हैं।
(जनपथ के जुलाई 2012 अंक में प्रकाशित)

रविवार, 16 सितंबर 2012

बिखरे रंग

(16 सितम्बर को जनवाणी में प्रकाशित )
रोजाना एक न एक एक्सीडेंट की खबर सामने आती ही है। कभी अखबार के जरिए, कभी चर्चाओं में। यूं तो एक्सीडेंट की घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी भी रहा हूं और कई बार चोटिलों को अस्पताल तक भी पहुंचाया है, पर जब भी तेज रफ्तार दौड़ते वाहनों को टकराते देखा है, यही सवाल दिमाग में आया है कि आखिर सबको इतनी जल्दी क्यों है? ओवरटेक करने की इतनी आपाधापी क्यों है? क्या यह हमारी आदत बन चुका है या हमेशा पहले नंबर पर रहने की लालसा भर है? या कि यह भी उसी तरह है कि ‘आखिर किसी और की कमीज हमारी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों हो!’
बहरहाल, अभी तीन दिन पहले ही मेरठ से दिल्ली जा रहा था, तब भी एक एक्सीडेंट का दृश्य देखा। जो देखा वह घटना घट चुकने के बाद का दृश्य था। एक आदमी बीच सड़क पर लहूलुहान पड़ा था। सड़क पर बिखरे दिमाग और बगल से झांकती पसलियों को देखकर मेरे बस के कुछ सहयात्री उबकाइयां लेने लगे थे, महिलाओं ने मुंह-नाक पर रूमाल रखते हुए नजरें फेर ली थीं। कुछ पुरुषों का भी यही हाल था। कोई बड़ी बात नहीं थी, जब एक्सीडेंट में चोटिल हुए व्यक्ति की तरफ से लोग नजरें फेर लेते हैं ताकि ‘व्यर्थ के झंझट’ में पड़ने से बचा जा सके, तो फिर यह आदमी तो मर चुका था। लेकिन मरकर भी यह आदमी लोगों के लिए ‘मुसीबत’ था, क्योंकि बीच रोड पर पड़ी उसकी मृत देह के पास भीड़ जमा थी, ट्रैफिक जाम था और लोगों को अपने-अपने गंतव्य तक पहुंचने की ‘जल्दी’ में बाधा बन रहा था। मेरे सहयात्री एक सज्जन का कहना था, ‘पता नहीं लोगों को इतनी जल्दी क्यों रहती है! देखो, जल्दबाजी में सड़क पार कर रहा था और ट्रक ने ठोक दिया। अब इसकी वजह से ट्रैफिक जाम हुआ पड़ा है। मुझे आठ बजे घर पहुंचना था, बच्चों के साथ फिल्म देखने का प्रोग्राम था। ...अरे ड्राइवर साहब, धीरे-धीरे गाड़ी बढ़ाओ यार, जल्दी पहुंचना है।’
उस आदमी की मृत देह से थोड़ी दूरी पर कुछ सामान बिखरा पड़ा था। एक पॉलीथिन से बाहर छिटक कर गिरीं वाटर कलर की कुछ शीशियों का सड़क पर बिखरा हुआ रंग, कुछ पेंसिलें और बच्चों के इस्तेमाल में आने वाली ड्राइंग बुक। उसके बच्चे के हाथों से बनने वाले न जाने कितने ही चित्र दिमाग में कौंध गए, जिन्हें देखने की शायद उसे भी जल्दी थी। मगर रंग तो बिखर चुके। सहयात्री के शब्द दिमाग में गूंज रहे थे- ‘बच्चे... फिल्म का प्रोग्राम... जल्दी...।’

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

कुछ कदम...


कुछ साथ चले तुम कदम काफ़ी है
कोई साथ मिला ये भरम काफ़ी है

मंज़िल-ए-दिल का पता यूं भी सही
हासिल-ए-सब्र-ओ-सदा यूं भी सही
कितना है ज़ब्त कितने उथले हैं
अपनी सीरत का पता यूं भी सही
जो तुमने याद दिलाया वो दम काफ़ी है

चुपचाप रहे लब कोई बात नहीं
सुबह के नाम रही शब कोई बात नहीं
मुश्क़िलें आती रहीं शिकवे भी होते रहे
लाख पहरों में रहा हक़ कोई बात नहीं
न हुई आंख तुम्हारी जो नम काफी है

आएगा वक़्त भी जब न इम्तिहां होगा
ख़िज्र न होगा कोई अपना ही इम्कां होगा
ज़र्द पत्तों का भी तो रंग होता है कोई
जो जल उठेंगे रोशन तो कुछ समां होगा
जो हसरतों में ढला है वो ख़म काफी है।

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

एक मार्गदर्शक की सक्रियता

इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ए के हंगल को याद करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र  रघुवंशी से फ़ोन पर हुई बातचीत का छोटा सा हिस्सा...

रंगमंच और फिल्मों में उन्होंने फर्क नहीं किया। वह कहते थे, 'अपनी बात कहने के लिए हर स्पेस का इस्तेमाल करो।’

खुद ए के हंगल ने अपनी आत्मकथा ‘लाइफ एंड टाइम्स ऑफ़  ए के हंगल’ में लिखा है कि ‘जीवन शाश्वत है और जीना सीमित।’ लेकिन एक सीमित जीवन में कितना कुछ पूरी ईमानदारी के साथ ऐसा किया जा सकता है जो शाश्वत जीवन के लिए महत्वपूर्ण होता है, यह उनकी जिंदगी को जानने से पता चलता है। ए के हंगल का जन्म एक फरवरी 1916 को सियालकोट में हुआ था। यह एक अलग बात है कि लंबे समय तक सही जन्मतिथि ज्ञात न होने के कारण उनका जन्मदिन 15 अगस्त को मनाया जाता रहा। उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा पेशावर में पाई थी। यहीं वह खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी की पारिवारिक परंपरा को तोड़ आजादी के आंदोलन में शामिल हो गए। 1931 में जब चंदेर सिंह गढ़वाली ने निर्दोष लोगों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया और इसके जवाब में अंग्रेजों ने सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया, तो इस घटना ने उन्हें बहुत उद्वेलित किया और वे इसके खिलाफ खड़े हुए।
वह आजादी को सिर्फ अंग्रेजों के भारत से चले जाने के रूप में नहीं देखते थे, बल्कि इसके मूल में बेहतर जिंदगी देखते थे। उन्होंने जीवन-यापन करने के लिए टेलरिंग की, तो टेलर्स यूनियन में सक्रिय भूमिका निभाई। चूंकि कला से उन्हें बचपन से ही लगाव था, उन्होंने बाकायदा संगीत-नाटक की शिक्षा भी ली थी, सो रंगमंच को भी अपनी बात कहने का माध्यम बनाया। यह वह दौर था जब देश न केवल गुलाम था, बल्कि सांप्रदायिकता का माहौल भी था। कुल मिलाकर हालात खराब थे, पुलिस लगातार उनके पीछे लगी रहती थी, लेकिन ए के हंगल सक्रिय थे। यह सक्रियता ताउम्र बरकरार रही। वह गोआ की आजादी के लिए सक्रिय रहे, पड़ोसी देशों से मित्रता के लिए सक्रिय रहे, सीनियर सिटीजन मूवमेंट में सक्रिय रहे और सांस्कृतिक आंदोलनों में तो खैर हमेशा ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ए के हंगल 1947 में अहमदाबाद में आयोजित भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय अधिवेशन में शामिल हुए थे। इसी अधिवेशन में उन्होंने निर्णय लिया था कि वापस कराची जाकर वह पाकिस्तान पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन का गठन करेंगे। लेकिन तब भी उनके लिए हालात मुश्किल ही थे। वापस जाकर उन्हें पाकिस्तान सरकार के विरोध का सामना करना पड़ा और दो साल जेल में गुजारने पड़े। 1949 में जब छूटे, तो मुंबई का रुख किया। जब वे मुंबई आए थे, तो उनकी जेब में सिर्फ 20 रुपये थे। वे फ्रीडम फाइटर भी थे और रिफ्यूजी भी, लेकिन उन्होंने इसके आधार पर मिलने वाली पेंशन की मांग नहीं की। उन्होंने इप्टा के साथियों से मुलाकात की और मुंबई इप्टा को फिर से सक्रिय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1985 में इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने और 2002 से अंतिम सांस तक इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे।
ए के हंगल राजनैतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को अलहदा नहीं देखते थे। वे मानते थे कि दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और आम आदमी दोनों से प्रभावित होता है। उनकी सांस्कृतिक और राजनैतिक गतिविधियों पर हमेशा नजर रहती थी। रंगमंच और फिल्मों में उन्होंने फर्क नहीं किया। वे कहते थे, ‘अपनी बात कहने के लिए हर स्पेस का इस्तेमाल करो।’ शोले में अपने अंधे व्यक्ति के किरदार को वह महज एक किरदार नहीं मानते थे। वह कहते थे कि ‘एक नेत्रहीन व्यक्ति अपनी आंखें खोजता रहता है।’ इस एक वाक्य के बहाने वे समाज, मार्क्स के लेख और वर्तमान परिस्थितियों का जिक्र भी करते थे। वे आजीवन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे और हमारा सांस्कृतिक-राजनैतिक मार्गदर्शन करते रहे। एक आम आदमी के प्रति उनकी सोच और संवेदनशीलता को अपनी आत्मकथा में लिखे उनके इस अंश से समझा जा सकता है कि ‘फिल्म के परदे और नाटक के मंच पर मृत्यु के बाद में पुनर्जीवित होता रहा हूं। क्या इस बार ऐसा कर सकूंगा?’

शनिवार, 21 जुलाई 2012

आज बस कुछ चीथड़े हैं हाथ में...


हर तरफ बर्बर शिकारी घात में, क्या करें
रास्ते पर ही चलें या ओट में, क्या करें

संवेदनाएं लुट गईं  उस महजबीं के साथ कल
आज बस कुछ चीथड़े हैं हाथ में, क्या करें

इक दिन पहनकर देखिए शर्म-ओ-हया
भूलकर सारी नसीहत पूछोगे, क्या करें

न छुई उंगली भी तो क्या फ़र्क है
तन-बदन नजरों से है छलनी किया, क्या करें

दर्द कुछ ऐसा है कि किससे कहें
मरहम लगाते हाथ में भी है सुआ, क्या करें

है एक दुश्मन, दोस्त इक, इक अजनबी
सबका मक़सद एक है बस लूटना, क्या करें

जब तक सलामत वो नहीं पहुंचा उधर
इस तरफ बढ़ती रही बेज़ारगी, क्या करें

सबकी ज़ुबां पर जिक्र है, ऐसा हुआ
कोई ये कहता नहीं क्योंकर हुआ, क्या करें

बाद उसके जाने के आलम था ये
भटका किये, सोचा किये हम हर घड़ी, क्या करें

मंगलवार, 26 जून 2012

दास्तान-ए-किस्सागोई




एक था राजा एक थी रानी
दोनों मर गए खतम कहानी
यह वह पंक्तियां हैं, जो बचपन में हम सभी ने कभी न कभी जरूर सुनी हैं। आज यह पंक्तियां अपने सही अर्थों में हमारे सामने भी हैं। बचपन में जब कभी कहानियां सुनने का जी करता था, छुट्टियों में अपनी दादी-नानी के करीब होते थे, तो उनसे कहानी सुनने की जिद भी किया करते थे। आपने भी की होगी।
खुले आसमान के नीचे, सितारों की छांव में दादी-नानी से राजा-रानी, राजकुमार, राक्षसों और परियों की कहानियां सुना करते थे हम। जब दादी या नानी कोई कहानी सुनाती थीं, तो उसका एक-एक पात्र हमारी आंखों के सामने जीवंत हो उठता था। कहानी कितनी ही अकल्पनीय क्यों न हो, सच ही लगती थी। हमारे जीवन में किस्सागोई की शुरुआत भी यहीं से होती है। वैसे, किस्सागोई ठीक-ठीक कब और कैसे शुरू हुई, इसका पता लगा पाना मुश्किल है। इतना तय है कि बचपन में मां की लोरी के साथ हम शब्दों को पहचानना सीखते हैं और कहानियों के साथ किस्सागोई से परिचित होते हैं। बचपन में सुनी कहानियों से किस्सागोई का जो सम्मोहन हम पर तारी होता है, उसका असर ताजिंदगी बरकरार रहता है। इसकी वजह भी है, और वह वजह है कल्पना की मधुरता का रस। किस्सागो यानी किस्से-कहानी कहने वाला अपनी योग्यता और कल्पनाशक्ति का भरपूर इस्तेमाल करता है। सुनाए जाने के मौके के अनुसार वह कहानी को रोचक और अविस्मरणीय बनाने के लिए उसमें बदलाव भी करता है, नाटकीयता भी डालता है और कोशिश रहती है कि सुनने वाला उसकी निरंतरता में डूब जाए।

किस्सागोई के रिश्ते
अब घर की किस्सागोई ही देख लीजिए। जब दादी-नानी कहानियां सुनाती थीं, तो बड़े-बड़ दांतों वाला राक्षस जब राजकुमारी को अपने जादुई उड़नखटोले में बिठाकर ले जाता था, और राजा परेशान होकर राजकुमारी को ढूंढ लाने वाले को राजा बनाने की घोषणा करता था, तो सब सच लगता था। फिर जब कोई राजकुमार राक्षस के किले में जाकर उससे वीरता से लड़कर राजकुमारी को छुड़ाने की कोशिश करता था, तब तक हम कहानी में इतने डूब चुके होते थे कि खुद को राजकुमार की जगह रखकर हम अपनी कल्पनाओं में सारा मंजर सजीव-सा पैदा कर चुके होते थे। घर की किस्सागोई में दादी-नानी इस मंजर को पैदा करने में हर किरदार के भावों के मुताबिक शब्दों की लंबाई, आवाज की गहराई का बखूबी इस्तेमाल करती थीं। वैसे, इन कहानियों से एक और किस्सा भी उपजता है। वह है हमारे घर और रिश्तों की बुनावट का किस्सा। दादी-नानी के बाद कहानियां सुनाने की जिम्मेदारी होती थी हमारी मां, मौसी, चाची, मामी की। इनकी कहानियों में भी दादी-नानी की कहानियों जैसा ही रस होता था। भले ही किसी बात पर मां और चाची के बीच अनबन हो गई हो, लेकिन हमें उससे कभी कोई फर्क नहीं पड़ता था। कहानियों का सम्मोहन इतना होता था कि चले ही जाते थे चाची के पास कहानियां सुनने। चाची भी ऊपर से भले ही हमसे कह दे कि जाओ अपनी मां से सुनो कहानी, लेकिन फिर भी हमारी उत्सुकता को शांत करने के लिए कहानी सुना ही देती थी। इन्हीं किस्से-कहानियों के बीच वह वात्सल्य और प्रेम उपजता था, जो हमेशा के लिए हमारे दिल में घर कर जाता है। फिर परिवार में तनाव चाहे कितना भी हो, दिल के किसी कोने में एक-दूसरे का हिस्सा होने का भाव हमेशा बना रहता है। इस मामले में सिर्फ घर की महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी सहभागी होते हैं। तभी तो चाचा, मामा, नाना के साथ भी रिश्ते की ऐसी ही बुनावट होती है। यह एक अलग बात है कि उनकी कहानियों में परियां नहीं होती थी, बल्कि वीर लड़ाके, हमारे पुरोधा और महान व्यक्तित्व ज्यादा शामिल होते थे। गौर से देखा जाए तो यह दोनों तरह की कहानियां हमारे कल्पना संसार को भी विस्तृत करती थीं और ज्ञान को भी।
मगर अब यह बुनावट कमजोर होती जा रही है। आधुनिक समाज की व्यवस्था में अब बच्चों के करीब न दादी-नानी हैं, न चाची-मौसी और न चाचा-मामा। माता-पिता के पास नौकरी की व्यस्तता है। दरअसल एकल परिवार की परिपाटी ने इस किस्सागोई की निरंतरता को बाधित किया है, जिसका असर बच्चों के कल्पनालोक पर तो पड़ा ही है, किसी हद तक रिश्तों की बुनावट की कमजोर होती गई है।

चेतना और मूल्यबोध
किस्सागोई सिर्फ घर की दहलीज के भीतर ही नहीं रही। यह हमारे समाज और संस्कृति का अहम हिस्सा रही है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि समाज में बड़े-बूढ़े ही किस्सागो की जिम्मेदारी प्रमुखता से निभाते आए हैं। नई पीढ़ी को सामाजिक मूल्यों से परिचित कराने की जिम्मेदारी भी इन्हीं के कंधों पर रही है। पारंपरिक ग्रामीण जीवन में इन मूल्यों का महत्व कितना है, इसे बताने की जरूरत नहीं है। लोग इन मूल्यों से विचलन के खतरों को न केवल जानते-समझते थे, बल्कि जितना हो सके इस विचलन और दूरी से बचने की कोशिश भी करते थे। नैतिक और सामाजिक मूल्यों से नई पीढ़ी को परिचित कराने के लिए उन्हें आज की तरह साहित्य या अन्य किसी माध्यम की जरूरत नहीं होती थी, क्योंकि पास किस्सागोई की कला होती थी। नई पीढ़ी के बीच ग्राम्य जीवन में सहअस्तित्व जैसे सामाजिक मूल्य किस्सागोई के साथ विकसित होते रहे हैं। यही वजह है कि गांवों की चौपालों पर किस्सागोई खूब फली-फूली। यह अलग बात है कि किस्सागोई लोकरंजन का प्रतिरूप है। किस्से-कहानियों के संपर्क में आने वाला श्रोता मुख्यत: मनोरंजन की ही तलाश करता है, उसमें निहित मूल्य उसके बाद ही समझे जाते हैं। इसीलिए किस्सागोई में रोचकता भी बहुत मायने रखती है। इसके अभाव में किस्सागो की सफलता शायद संभव नहीं है।

दुनिया एकाकार
यह किस्सागोई का ही कमाल है कि बिना किसी प्रकाशन व्यवस्था और तकनीकी संचार माध्यमों के भी बीती सदियों में कहानियां दूर देश की यात्रा कर चुकी हैं। पूरी दुनिया का लोकसाहित्य देखा जाए, तो इस किस्सागोई की ताकत का अंदाजा होता है। किस्सागोई के कारण ही पंचतंत्र की कहानियां सारी दुनिया भर में न केवल प्रचलित हैं, बल्कि उनमें स्थानीय रुचियों और परंपराओं के मुताबिक बदलाव भी दिखाई देते हैं। ईसप की कहानियां इसका मजबूत उदाहरण हैं। यूनान में जन्मे ईसप एक बेहतरीन किस्सागो थे। नीति और व्यावहारिक ज्ञान को कहानियों की शक्ल देने में उनका कोई सानी नहीं है। अपनी कई कहानियों में ईसप ने पंचतंत्र की कहानियों का भी उपयोग किया है। तकरीबन सत्रह शताब्दियों तक कहने-सुनने की कला के चलते ही दुनिया भर की सैर करती रही कहानियां, आज भी मौजूद हैं। लू श्युन ने जिन चीनी लोककथाओं का संग्रह किया, उनमें भी हमारी कहानियों जैसा-ही कुछ है और ग्रिम बंधुओं द्वारा संकलित की गई जर्मनी की लोककथाओं में भी। दुनिया के बनने की कथाएं भी मिलती-जुलती हैं और परियों की कहानियां भी। दरअसल यह किस्सागोई का ही नतीजा है कि सारी दुनिया का लोक-साहित्य लगभग एकाकार हो गया है।

बच्चों की दुनिया
इस बात से आप भी सहमत होंगे कि बच्चे कहानियां पढ़ने से ज्यादा सुनना पसंद करते हैं। दरअसल कहानी सुनने के दौरान उनके दिमाग पर वह दबाव नहीं होता, जो पढ़ने के दौरान होता है, और वे कहानी के साथ-साथ अपने कल्पनालोक में उन्मुक्त उड़ान भर सकते हैं। कहानी की घटनाएं, उनके पात्र उनके मानस में जीवंत होते चले जाते हैं और साथ ही कहानी में निहित संदेश भी वे आत्मसात करते चले जाते हैं। किस्सागोई की अंतरंगता के कारण ही यह शैली बच्चों द्वारा सबसे ज्यादा पसंद की जाती है। शायद यही वजह है कि बच्चों के बीच वही कहानीकार ज्यादा लोकप्रिय हुए हैं, जिन्होंने बातचीत के ढंग में उनके मन की बात कही है।
दादी-नानी की किस्सागोई की कम होती निरंतरता के चलते आज बच्चों की कल्पनाशक्ति भी क्षीण हो गई है। इसकी एक वजह यह भी है कि आज उन्हें सब-कुछ मूर्त रूप में देखने को मिल रहा है। आज वे अपनी कल्पना में परी की तस्वीर नहीं बनाते, बल्कि एनिमेशन फिल्मों और टीवी पर दिखाई देने वाली परी को देखते हैं। चाहे राक्षस हो, राजकुमार हो, या चुड़ैल, सब कुछ उनके सामने रख दिया गया है। वे अब अपनी चुड़ैल तैयार नहीं करेंगे, बल्कि पहले से मौजूद चुड़ैल को देखेंगे।  बचपन में जब हम दादी-नानी के मुंह से इन किरदारों का वर्णन सुनते थे, तो अपने मन में उन्हें गढ़ते थे। शायद इसीलिए हम सबके राजा, राक्षस और चुड़ैलें अलग-अलग हुआ करते थे। यह प्रक्रिया हमारी कल्पनाशीलता को भी बढ़ाती थी और हमारे दिमाग को तीवृ भी, लेकिन तकनीक का विस्तार आज बच्चों की कल्पनाशीलता को खत्म करता जा रहा है। दूसरी ओर किस्सागोई की कमी नए किरदारों को गढ़ने में बाधक बनी है।

किस्सागोई का बाजार
देखा जाए तो किस्सागोई कभी खत्म न होने वाली विधा है, उसमें बदलाव होते रहते हैं। किस्सागोई आज भी है, लेकिन अब उसने अपने रूप के साथ-साथ जगह भी बदल ली है। अब वह घर, चौपालों, दोस्तों की बैठकी के बजाय टीवी के पर्दे और विज्ञापन संसार में सिमट गई है। अब किस्सागोई बड़े पैमाने पर उत्पाद बेचने का माध्यम बन गई है। फिर चाहे वह जूजू की बिना आवाज की किस्सागोई हो, या फिर मनुष्य के विकासक्रम का किस्सा दिखाने वाला महज 'दद्दू' की आवाज वाला एक च्युइंग गम का विज्ञापन। आज विज्ञापन जगत किस्सागोई का इस्तेमाल करता है, ताकि दर्शकों की नजर से विज्ञापन आसानी ने न गुजर जाए, उसे विज्ञापन में कुछ रोचक लगे। वैसे भी सेठ गोडिन ने अपनी किताब 'आॅल मार्केटर्स आर लायर्स' में लिखा है कि 'मार्केटिंग एक किस्सागोई है। उत्पादों को उन कहानियों के जरिए ब्रांड्स में बदला जाता है, जो बाजार के खिलाड़ी उनके इर्द-गिर्द बुनते हैं। इन खिलाड़ियों में विज्ञापन एजेंसियां भी हैं। तो जब तक मार्केटिंग बरकरार रहेगी, किस्सागोई भी रहेगी।' अब सवाल यह है कि क्या मार्केटिंग की किस्सागोई, चेतना, मूल्यबोध, रिश्तों की बुनावट और हमारे कल्पनालोक को भी बरकरार रख सकेगी?