सोमवार, 21 दिसंबर 2009

ये कैसी दौड़ है...

शक्ल-सूरत तो थी उसी की तरह
ये कोई और था उसी की तरह

यक़ीनन ख़्वाब था बरसों पुराना
कल बिक गया जो असली घी की तरह

ये कैसी दौड़ है कि बच्चों की
पीठ पर बोझ है कुली की तरह

करोड़ों लोग मशगूल कुछ तो हासिल हो
कोप* से निकले मुरझाये जी की तरह

इनके वादे समझना ज़रा सलीके से
आये हैं जो सावन में बैरी पी की तरह

अपने गीतों को उनकी लय पे गाओ
रोओ ऐसे कि लगता रहे  हँसी की तरह.

* कोपेनहेगेन वार्ता : ७-१८ दिसम्बर २००९

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

चुनाव - घोषणाएं - अफीम


अभी-अभी मध्य प्रदेश से लौटा हूँ। नगर निगम/नगर पालिका चुनावों की बेला थी। प्रत्याशी तो ठीक वैसे ही आ रहे थे जैसे किसी विरहिणी के परदेश में रह रहे सजन, भांति-भांति के सतरंगी सपनों की चुनरिया लेकर। पर इस बार मतदाता विरहिणी की तरह दिखाई नहीं दे रहे थे। लेकिन उन सतरंगी सपनों की चुनरिया के रंगों में डूब ज़रूर रहे थे।
हमारे देश में चुनावी प्रत्याशियों द्वारा की जाने वाली घोषणाएं भी एक शोध का विषय हो सकती हैं और उन घोषणाओं से यह भी पता लगाया जा सकता है कि कौन सी समस्या हमारे देश में कितनी प्राचीन है, उसके समाधान के लिए कितने वर्षों का राजनैतिक प्रयास है, और सबसे बड़ी बात यह कि हमारे देश कि सबसे प्रमुख समस्या क्या है ?

तो साहब सबसे बड़ी समस्या जो है वो है कि वोट कैसे प्राप्त किये जाएँ ?
अब वर्षों के अनुभव से इसका जो समाधान निकला है वो ये है कि किसी एक ही मुद्दे पर बात करके अधिक वोट नहीं पाए जा सकते, इसलिए अलग-अलग हिस्सों और वर्गों के लिए मुद्दे अलग-अलग होने चाहिए। कुछ कॉमन मुद्दों कि भी ज़रूरत होती है। जिन पर घोषणाएं करना ज़रूरी होता है, भले ही पूरा करना सामर्थ्य से बाहर हो। जैसे कि मेरे अपने शहर में हुआ। शहर को जिस तालाब से पीने का पानी मिलता है और जो गर्मियों में भी लबालब भरा रहता है, दिसंबर में उसका हाल ये है कि पूरी तरह सूख चूका है, पानी कि आपूर्ति के लिए तालाब में बोर किये गए परन्तु नतीजा सिफर, पानी नहीं निकला। और प्रत्याशी हैं कि घोषणा कर रहे हैं कि पानी की समस्या को पूरी तरह मिटा देंगे। भैया, ज़रा उन आंकड़ों को तो देख लो जो बताते हैं की भूमिगत जल-स्तर किस हद तक नीचे जा चूका है और क्या मौसम विभाग से दुश्मनी है जो बारिश को लेकर उसके पूर्वानुमान पर नज़र तक नहीं डालते ! तब खाली नलके ही लगाने से पानी आ जायेगा क्या ? और जो लोग कोपेनहेगेन में करोड़ों रुपये की आहुति का यज्ञ कर रहे हैं क्या वो ....... हैं। हाँ अगर इन प्रत्याशियों में से कोई भीम या अर्जुन हो तो बात दूसरी है कि पैर की ठोकर या तीर मारकर पाताल गंगा निकाल दे।
वैसे भीम-अर्जुन से याद आया कि हमारे देश में चमत्कारों/ देवी-देवताओं का भी महत्वपूर्ण दखल है। हर शुभ काम करने के पहले उन्हें याद करना बहुत ज़रूरी है वरना अगर नाराज़ हो गए तो बंटा-ढार हो जायेगा। और फिर जनसेवा से ज्यादा शुभ काम क्या होगा, ईश्वर को याद करना तो लाजिमी है (अगर नाराज़ हो गए तो वोट कट जायेंगे)। पर सिर्फ याद करने भर से क्या होगा, बाबुओं की तरह अगर उन्हें प्रसाद नहीं चढ़ाया तो फाइल आगे कैसे खिसकेगी। तो साहब एक ही शहर के एक ही मोहल्ले में दो अलग-अलग कोनों में ईश्वर की बोली लगायी गई। माफ़ कीजियेगा ईश्वर की नहीं - अल्लाह और भगवान की। (आखिर दो अलग-अलग समुदायों के वोट का मामला है)। तो साहब जो जितनी बड़ी बोली लगाएगा उसको उतना प्रसाद मिलेगा। और फिर कहते हैं न की अल्लाह मेहरबान तो गधा पहलवान। तो सारी समस्याएं ऊपरवाला ही हल करेगा। बारिश के बिना पानी, बिजली और रोटी तो भक्तवत्सल भगवन दे ही देंगे, भाड़ में जाएँ विज्ञानं का हल्ला मचाने वाले।

तो साहब, सुधार करते हुए कहता हूँ कि देश की सबसे बड़ी समस्या भूख, बेरोज़गारी, पानी, बिजली, स्वास्थ्य कतई नहीं हैं, ये तो साइड इफेक्ट्स हैं, सबसे बड़ी समस्या है कि लोगों को अफीम कैसे चटाई जाये और ऊपरवाले को खुश कैसे रखा जाए। आखिर संसार में उसकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता।

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

diwali ki shubhkmna aur sahir



सूरज को हमने तपते देखा है...


दिन में सूरज को हमने तपते देखा है
शाम की गर्मी ज़हन में अब तक बाकी है

सन्नाटे में गूंजती इक आवाज़ है जो
आह किसी के दिल से निकली जाती है

कागज़ पे बिखरी स्याही बेमतलब सी
भूख आज भी मन को मथकर जाती है

चाँद पे पानी को खोजें हैं ज्ञानी जन
धरती पे पर प्यास भड़कती जाती है

अच्छी-अच्छी बातें सब जितनी भी हैं
नारे बनकर बातों तक रह जाती हैं

सूरज अपनी लय में आता-जाता है
आँख खुले जब सुबह तभी तो आती है।

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

मेरी कुदाल...

कुछ अरसा पहले बिहार-झारखण्ड में दैनिक मजदूरी पर जीवन यापन करने वाले लोगों के बीच बिताये वक्त में लिखी थीं ये पंक्तियाँ, और वहीं अपने कैमरे में संजोई हुई तस्वीरों में से एक तस्वीर के साथ ये पोस्टर तैयार किया।


मंगलवार, 11 अगस्त 2009

बातें

(१)
वे नहीं जानते
मेरे बारे में
उसके बारे में
बात कर रहे हैं लेकिन
हमारे बारे में

(2)
पूरा परिवार परेशान है
वह हिंदू है तो क्या
हमारी जात की नहीं है

(३)
उसके माता-पिता
चिंतित हैं
मैं क्यों रखता हूँ ख़याल
उसकी ज़रूरतों का

(४)
लोग परेशान हैं
जिसकी छोटी उम्र से ही
रखे थे नज़र
वो क्यों है मेरे इतने करीब
और उनकी पहुँच से दूर

(५)
सब ले रहे हैं मज़े
परिवार की प्रतिष्ठा पर
अंगुली उठाने का
कैसे चूक सकते हैं वे मौका

(६)
अपना-अपना जीवन
बेहतर बनाने की दिशा में
दोनों ने ही रखा था
कस्बे से कदम बाहर
और दोनों ही
भाग गए थे आगे-पीछे
लोगों की बातों में

(७)
मरणासन्न कर देने वाली बीमारी भी
बन गई मुसीबत उसके लिए
मेरा करीब होना तो
मंज़ूर नहीं था कतई
बातों में गर्म था
गर्भपात का चर्चा

(८)
नौकरी नहीं थी उसके पास
पढ़ाई भी चल ही रही थी
कर दी गई थी बंद
घर से दी जाने वाली आर्थिक मदद
मेरा मदद करना
जो हो सकता था लोगों की बातों में
वे मान चुके थे उसे

(९)
सब खुश हैं
वो वापस अपने घर में है
नहीं निकलती चारदीवारी के बाहर
नौकरी का तो प्रश्न ही नहीं उठता
भले ही दक्ष है
कंप्यूटर नेट्वर्किंग में
तो क्या!

(१०)
सुबह की चाय से
रात के खाने तक
अपने ही घर में बस
काम वाली बाई ही बची है
बिना वेतन के
इस पर
कोई बात नहीं करता
कोई भी

(११)
सब खुश हैं
सब सफल हैं
प्रतिबंधित है
उससे बात करना भी मेरे लिए

(१२)
सब हुआ सबकी बातों में
सब हुआ सबकी बातों से
सब खुश हैं सब हो जाने से
किसने समझा
कितना आहत हुआ सब होने से
उसका मन
मेरा मन

(१३)
अपना-अपना सबने कहा
मिलकर सबका अपना-अपना
सबका हो गया
सबका कहा सब सच माना गया
हमारा सच कुछ नहीं रहा
बावजूद इसके कि
हम दोस्त थे बहुत अच्छे
मैं करता था उसे प्रेम
पिता की तरह।

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

लिखे बिरहमन पीली चिट्ठी...

एक अरसा पहले लिखी ग़ज़ल -

लफ्जे मोहब्बत अहले दुनिया हमने खूब उछाला है
क्या समझाएं उनको जिनका सब कुछ देखा भाला है

लिखे बिरहमन पीली चिट्ठी दो लोगों की डोर बंधी
चाँद पे पहुंचे मंगल देखा फिर भी गहरा जाला है

शिकवे गिले तो ज़ेरे लब हैं क्या कहना खामोश रहो
जिनके वादों पर है जीना उनका दिल तो काला है

दश्ते सितम में शेर तुम्हारे क्योंकर उन तक पहुंचेंगे
सबकी अपनी चारदीवारी सबका एक रिसाला है

काम तो लो कुछ धीरज से वो हैं मसरूफ तुम्हारे लिए
भूखे बच्चों की खातिर फिर कहीं पे छलका प्याला है

कड़ी धूप है चलेंगे कैसे, सोच के बस घर ही में रहे
कमरे में ही चल-चलकर अब पका पाँव का छाला है

साहिल तुम हो फक्कड़ ठहरे क्या जानो तुम इनका राज़
रुतबा, शोहरत, पहचानों का कैसा गड़बड़-झाला है