गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

सवाल : विवाह संस्था, लिवइन रिलेशन या स्वतंत्रता

पिछले दिनों लिवइन रिलेशन पर ब्लाग जगत हो रही बहस पर काफी कुछ पढ़ा। एक जगह पर आकर यह बहस विवाह संस्था के औचित्य व स्त्री मुक्ति पर आकर केन्द्रित हो गई। कई लोगों का मानना है कि विवाह संस्था स्त्रियों की दासता, उनके शोषण का एक बहुत बड़ा कारण है, विवाह संस्था को नकारना स्त्री मुक्ति में एक बड़ा कदम हो सकता है। बहरहाल साथी अजय झा जी का कहना है कि अभी सिर्फ एक पक्ष को देखकर ही बात की जा रही है. लिव इन रिलेशनशिप :एक अलग दृष्टिकोण (भाग दो )  

बहुत ठीक कहा... अभी कुछ ही पक्षों को देखकर तमाम अटकलें और विचार आए हैं. बहुत बारीकी से विश्लेषण की ज़रूरत है। बहरहाल मुझे ऐसा लगता है कि विवाह संस्था का न होना स्त्री मुक्ति का परिचायक तो नहीं हो सकता। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि विवाह सिर्फ दैहिक संबंध मात्र नहीं है, वह संवेदनात्मक और भावनात्मक भी है। और क्या यही संवेदनात्मक/भावनात्मक संबंध लिवइन रिलेशनशिप में नहीं है।


दरअसल सवाल स्वतंत्रता और फ्री स्पेस का है। एक बात अक्सर उठाई जाती है कि विवाह के बाद पुरुष की इच्छाएं, विचार महिला की इक्षाओं, विचारों पर भारी पड़ते हैं, दूसरे शब्दों में महिला को पुरुष के अनुसार बदलना होता है। परंतु मेरा मानना है कि एक समय बाद दोनों ही के बीच एक साझा सोच/समझ विकसित हो जाती है। और यही सब लिवइन रिलेशन में भी है। उदाहरण मौजूद हैं, बस नज़र डालने की ज़रूरत है।

दरअसल स्त्री को संपत्ति के रूप में स्वीकार करने की ऐतिहासिक घटना ने पुरुष की मानसिकता को इतना संकुचित कर दिया है कि वह आज भी स्त्री को सहगामिनी कम उपभोग्य व मालिकाना हक की वस्तु  अधिक समझता है (भले ही स्वीकार कोई नहीं करता), इसी वजह से स्त्री पर तमाम बंदिशें लगाई जाती हैं, उसका शोषण किया जाता है, और यह विवाह के बाद ही नहीं विवाहपूर्व भी होता है। कोई लड़की विवाहपूर्व जब अपने पिता के घर में होती है क्या तब उसे पूर्णत: स्वतंत्र माना जा सकता है?

मसला इस मानसिकता का है, जब तक यह मानसिकता मौजूद है तब तक स्त्रियों के शोषण की संभावना मौजूद है (कम से कम मानिसक शोषण की तो है ही) क्योंकि तब तक उनकी स्वतंत्रता, ज़रूरी फ्री स्पेस की उपलब्धता संदेह के दायरे में है फिर चाहे वह विवाह संस्था हो चाहे लिवइन रिलेशनशिप।

स्त्री मुक्ति को लेकर विवाह संस्था को नकारने का जो तर्क है उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण शायद इस मानसिकता को बदलने और स्त्री को वांछित स्वतंत्रता, फ्री स्पेस उपलब्ध कराने का सवाल है। विवाह संस्था स्त्री मुक्ति के दायरे में आने वाला एक घटक हो सकता है पर स्त्री की स्वतंत्रता का आधार नहीं। महिलाओं की स्वतंत्रता का मुद्दा इससे कहीं अधिक व्यापक है।

5 टिप्‍पणियां:

  1. आप के विचारों से मै सहमत हूँ. मगर स्त्री मुक्ति से ज्यादा जरुरत है पुरुषों को "स्त्री हमारी संपत्ति है" जैसी मानसिकता से मुक्ति दिलाने कि. स्त्री को संपत्ति ना समझ इन्सान समझा जाये और इस बदलाव के ठेकेदार सिर्फ पुरुष है ऐसा नहीं है. स्त्री जो जन्म दात्री है उसे इस हथियार को इस्तेमाल करना आना चाहिए जैसा कि शिवाजी की माँ ने इस्तेमाल किया था.

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  2. @साहिल जी

    कल की मेरी टिपण्णी में एक शब्द जो कम था वो आज आपने दे दिया "फ्री स्पेस "... ये किसी भी रिश्ते को ज़िंदा रखने के लिए जरुरी है .

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  3. साहिल जी पुरुष होते हुए आपने स्त्री की मानसिकता को इतनी बारीकी से समझा कि हैरान हूँ .....यही समझ हर घर के पुरुष में आ जाये तो घर सुखी न हो जायें .....

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  4. @ हरकीरत जी,
    मसला स्त्री या पुरुष होने का नहीं, इन्सान होने आैर संवेदनात्मक समझ का है। पहली प्राथमिकता इन्सान होना है.... वही होने की कोशिश कर रहा हूं।

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  5. साहिल पूरी तरह आपसे सहमत हूं…मुझे लगता है आपको इसे और विस्तार से लिखना चाहिये…

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